हिमाचल प्रदेश की राजनीति में इन दिनों एक नई बहस जोर पकड़ चुकी है, जिसकी शुरुआत राज्य के स्वास्थ्य मंत्री और अनुभवी कांग्रेस नेता कर्नल धनी राम शांडिल की ओर से उनके बेटे को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने की घोषणा से हुई। सोलन में एक स्थानीय मेले के मंच से 26 जून को की गई इस घोषणा ने जहां कांग्रेस के भीतर हलचल मचा दी है, वहीं विपक्ष को भी वंशवाद के मुद्दे पर हमला करने का एक बड़ा अवसर मिल गया है। खास बात यह है कि इस पूरे घटनाक्रम में सबसे तीखी प्रतिक्रिया खुद शांडिल के दामाद और भाजपा नेता राजेश कश्यप की आई है, जिन्होंने इसे सीधा लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला बताया है।
राजेश कश्यप, जो पहले भी अपने ससुर धनी राम शांडिल के खिलाफ सोलन से विधानसभा चुनाव लड़ चुके हैं, ने अपनी नाराज़गी खुलकर जाहिर की है। उन्होंने शांडिल की घोषणा को निराशाजनक और अलोकतांत्रिक बताते हुए तीखे शब्दों में कहा कि यह कोई लोकतंत्र नहीं, बल्कि मुगलशाही का दृश्य है, जहां सत्ता को परिवार के भीतर सीमित करने की मानसिकता हावी है। उन्होंने यह सवाल उठाया कि क्या कर्नल शांडिल जैसे वरिष्ठ नेता बिना पारिवारिक दबाव के इस तरह की घोषणा कर सकते हैं? उनका इशारा साफ था कि यह निर्णय राजनीतिक नहीं, पारिवारिक मजबूरियों का परिणाम है।
राजेश कश्यप ने कांग्रेस के भीतर वर्षों से काम कर रहे स्थानीय नेताओं का भी ज़िक्र किया, जिनकी उम्मीदें अब धुंधली होती दिख रही हैं। उन्होंने कहा कि पलक राम कश्यप, देवेंद्र कश्यप, मदन कश्यप और भूपेंद्र जैसे नेताओं ने वर्षों तक पार्टी के लिए काम किया और टिकट की आस में जमीनी मेहनत की, लेकिन अब एक पारिवारिक घोषणा ने उनके राजनीतिक भविष्य पर सवाल खड़ा कर दिया है। कश्यप ने इसे लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया और कहा कि यह उस सोच को बढ़ावा देता है जिसमें राजनीतिक शक्ति केवल परिवारों तक सीमित रह जाती है।
राजेश कश्यप ने स्पष्ट किया कि उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि कांग्रेस किसे टिकट देती है, लेकिन भाजपा की ओर से जो भी उम्मीदवार सोलन से मैदान में उतरेगा, वह इस वंशवादी सोच को ज़बरदस्त जवाब देगा। उन्होंने भरोसा जताया कि जनता अब परिवारवाद और लोकतंत्र के बीच का फर्क समझने लगी है और समय आने पर सही निर्णय लेगी।
हिमाचल प्रदेश की राजनीति में यह विवाद अब केवल एक विधानसभा सीट का मामला नहीं रह गया है, बल्कि यह उस बड़ी बहस का प्रतीक बन गया है जिसमें भारतीय लोकतंत्र के भीतर परिवारवाद के वर्चस्व को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस इस मामले में क्या रुख अपनाती है और भाजपा इसे चुनावी मुद्दा बनाने में कितनी कामयाब होती है।
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