कुर्सी बड़ी हो या छोटी, जवाबदेही जरूरी है: सिस्टम की सफाई बिना सख्ती मुमकिन नहीं

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किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार से ज्यादा अहम भूमिका उन अफसरों और अधिकारियों की होती है, जो ज़मीन पर नीतियों को लागू करते हैं। अगर यही लोग ईमानदारी से काम करें तो योजनाओं का फायदा आख़िरी आदमी तक पहुंचता है, लेकिन जब जिम्मेदार कुर्सियों पर बैठे लोग लापरवाह या भ्रष्ट हो जाएं, तो पूरा सिस्टम लड़खड़ा जाता है। आज आम आदमी की नाराज़गी की सबसे बड़ी वजह यही है कि नियम किताबों में सही हैं, मगर अमल में कहीं न कहीं गड़बड़ हो जाती है।



हरियाणा के कुरुक्षेत्र में सामने आया कथित धान खरीद घोटाले का मामला इसी सच्चाई को उजागर करता है। किसानों की मेहनत, सरकारी रिकॉर्ड और खरीद प्रक्रिया—तीनों के बीच जो अंतर दिखा, उसने पूरे सिस्टम पर सवाल खड़े कर दिए। जहां एक ओर बारिश और बाढ़ से फसल को नुकसान हुआ, वहीं दूसरी ओर कागज़ों में रिकॉर्ड खरीद दिखा दी गई। यह सवाल लाज़मी है कि अगर सब कुछ नियमों के मुताबिक था, तो फिर इतना बड़ा फर्क कैसे पैदा हुआ?

इस पूरे मामले में जिला खाद एवं पूर्ति विभाग के वरिष्ठ अधिकारी पर कार्रवाई होना सिर्फ एक प्रशासनिक कदम नहीं, बल्कि एक सामाजिक और राजनीतिक संदेश भी है। संदेश साफ है कि अगर जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग अपनी ड्यूटी ईमानदारी से नहीं निभाएंगे, तो उसका खामियाजा पूरे तंत्र को भुगतना पड़ेगा। किसानों को समय पर भुगतान नहीं मिलता, भरोसा टूटता है और आंदोलन सड़कों पर उतर आते हैं।

यह भी सच है कि आज जनता सिर्फ कार्रवाई नहीं, बल्कि स्थायी समाधान चाहती है। अफसर बदल देने से या चार्जशीट थमा देने से तब तक हालात नहीं सुधरेंगे, जब तक सिस्टम में निगरानी की मजबूत व्यवस्था नहीं होगी। सरकारों को ऐसे स्वतंत्र और प्रभावी तंत्र खड़े करने होंगे, जो अधिकारियों के कामकाज पर लगातार नजर रखें। पारदर्शिता, डिजिटल ट्रैकिंग और समय-समय पर ऑडिट जैसे कदम अब विकल्प नहीं, बल्कि जरूरत बन चुके हैं।

कुरुक्षेत्र का मामला इसलिए भी अहम है, क्योंकि इसने यह दिखा दिया कि जब अधिकारी अपने दायित्व से भटकते हैं, तो उसका सीधा असर किसानों, आम जनता और सरकार—तीनों पर पड़ता है। किसान परेशान होता है, प्रशासन की साख गिरती है और सरकार को राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे में सवाल यह नहीं है कि गलती किसकी थी, सवाल यह है कि आगे ऐसी गलती दोबारा न हो, इसके लिए क्या व्यवस्था बनाई जा रही है।

आज सोशल मीडिया पर भी लोग यही सवाल पूछ रहे हैं—क्या बड़े पदों पर बैठे लोग जवाबदेह हैं? क्या उनके फैसलों की नियमित समीक्षा होती है? अगर नहीं, तो फिर भ्रष्टाचार पर लगाम कैसे लगेगी? जनता चाहती है कि सरकारें सख्त हों, मगर निष्पक्ष हों। ईमानदार अफसरों को सुरक्षा और सम्मान मिले और गड़बड़ी करने वालों के लिए कोई ढील न हो।

इस पूरे घटनाक्रम से एक बात साफ है कि सुशासन सिर्फ नारे से नहीं आता, बल्कि मजबूत निगरानी, साफ नीयत और समय पर कार्रवाई से आता है। अगर सरकारें यह सुनिश्चित कर लें कि हर स्तर पर जवाबदेही तय है और सिस्टम में बैठे हर व्यक्ति की निगरानी हो रही है, तो न सिर्फ भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा, बल्कि आम आदमी का भरोसा भी दोबारा मजबूत होगा। आखिरकार, लोकतंत्र की असली ताकत वही है, जहां कुर्सी पर बैठा हर शख्स खुद को जनता के प्रति जवाबदेह समझे।

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