हिमाचल में विकास बन गया संकट, वैज्ञानिक नजरअंदाजी से बिगड़ा संतुलन

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बिना वैज्ञानिक समझ के सड़क निर्माण बना हिमाचल में तबाही की जड़, एनएचएआई की लापरवाही से बढ़ी जान-माल की हानि

हिमाचल प्रदेश एक बार फिर मानसूनी कहर से कराह रहा है। राज्यभर में पिछले कुछ दिनों में मूसलाधार बारिश और भूस्खलनों ने अब तक 100 से अधिक लोगों की जान ले ली है, सैकड़ों घायल हैं और लगभग 500 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हो चुका है। लेकिन यह केवल प्रकृति की मार नहीं है, बल्कि वर्षों से चली आ रही तथाकथित ‘विकास नीति’ की वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विफलता का परिणाम है।

हाल ही में छपी एक रिपोर्ट में पर्यावरण विशेषज्ञ और हिमाचल प्रदेश विज्ञान, पर्यावरण एवं प्रौद्योगिकी परिषद के सदस्य डॉ. सुरेश अत्री ने चेतावनी दी है कि पहाड़ी क्षेत्रों में भवन निर्माण या सड़कें बनाने से पहले वैज्ञानिक भूगर्भीय और जलवायु अध्ययन अनिवार्य होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश, हिमाचल में यह प्रक्रिया अधिकांशतः नज़रअंदाज़ की गई है।

विशेष रूप से पर्वतीय क्षेत्रों में अंधाधुंध सड़क निर्माण, बेतरतीब कटिंग और बिना मजबूत भू-स्थायित्व परीक्षण के की गई खुदाई ने इन क्षेत्रों को आपदा के मुहाने पर खड़ा कर दिया है। पिछले 25 वर्षों से परवाणू से सोलन तक का हाईवे प्रोजेक्ट आज भी अधर में लटका है। इस मार्ग पर आज भी लगातार भूस्खलन हो रहे हैं, यातायात रुकता है, यात्रियों की जान को खतरा रहता है और स्थानीय लोगों की रोज़मर्रा की जिंदगी बर्बाद हो चुकी है।

एनएचएआई (भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण) द्वारा की गई अनियोजित और बिना विशेषज्ञ सलाह के पहाड़ों की कटिंग ने हिमाचल को प्राकृतिक असंतुलन की ओर धकेल दिया है। मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री नितिन गडकरी को अब यह समझना होगा कि हिमाचल कोई मैदानी इलाका नहीं है, जहाँ सीधी सड़कें बनाई जा सकें। यहां की जलवायु, भौगोलिक संरचना और पारिस्थितिकी अलग हैं, जिन्हें ध्यान में रखे बिना कोई भी विकास कार्य विनाश का कारण बन सकता है।

डॉ. अत्री के अनुसार, प्रदेश में बीते पांच वर्षों में बादल फटने की घटनाओं में चार गुना तक बढ़ोतरी हुई है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि अत्यधिक वृक्षारोपण ने जलवाष्प को लंबे समय तक रोके रखा, जिससे अचानक भारी वर्षा और बादल फटने की घटनाएं बढ़ गईं। वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग से जलवायु परिवर्तन हो रहा है और हिमालयी क्षेत्र इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं। इसलिए अब अगर विकास करना है, तो वह केवल इंजीनियरिंग के भरोसे नहीं बल्कि पर्यावरण विज्ञान और भू-गर्भीय अनुसंधान के साथ मिलकर होना चाहिए।

प्रदेश के कई क्षेत्रों में आज भी पीने का पानी नहीं है, बिजली की लाइनें टूट चुकी हैं और सड़कें मलबे में दबी पड़ी हैं। जिन क्षेत्रों को विकास का चेहरा दिखाया गया था, वहां अब लोग अपने उजड़े हुए घरों के मलबे से अपने परिजनों की यादें बटोर रहे हैं।

अब समय आ गया है कि सरकार, नीति निर्माता और प्रशासन यह समझे कि ‘विकास’ केवल टार और सीमेंट से नहीं होता। यदि विकास के नाम पर कुदरत की व्यवस्था से खिलवाड़ किया जाएगा, तो उसके बदले में कुदरत अपना हिसाब खुद चुकता करेगी—और यह कीमत आम जनता को अपने जीवन, घर और भविष्य के रूप में चुकानी पड़ रही है।

हिमाचल की जनता अब पूछ रही है:
क्या हमने विकास मांगा था, या विनाश?

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यह एक ऑटो वेब-जनरेटेड न्यूज़ वेब स्टोरी है।

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